भारतेंदु हरिश्चंद्र हिन्दी साहित्य की गद्य विधा के आधार स्तम्भ हैं। यद्यपि हिन्दी गद्य-साहित्य का प्रारम्भ मुंशी सदासुख लाल, इंशा अल्ला खां, लल्लू लाल एवं सदल मिश्र के द्वारा माना जाता है पर वह हिन्दी गद्य का नमूना मात्र था। भारतेंदु ने हिन्दी गद्य की भाषा को परिमार्जित तथा सुव्यवस्थित किया। भारतेंदु के पूर्व राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद एवं राजा लक्ष्मण सिंह ने भी गद्य लेखन का कार्य किया पर उनकी भाषा दोषपूर्ण थी। भारतेंदु ने उपरोक्त लेखकों के गद्य की त्रुटियों को परिस्कृत किया और हिन्दी गद्य को व्यवस्थित रूप प्रदान किया।
भारतेंदु का काल पुनर्जागरण का काल था। औपनिवेशिक शाषण काल में देश में नए-नए विचारों एवं भावनाओं का आगमन हो रहा था। ऐसे में जो राष्ट्रीय जागृति का प्रसार हो रहा था उसे भारतेंदु ने हिन्दी साहित्य में स्थान प्रदान किया और तत्कालीन सन्दर्भों से जुड़ी रचनाएँ की।
भारतेंदु ने कवि के रूप में भी रचनाएँ की। उनकी कविता मुख्यतः दो धाराओं में प्रवाहित हुई हैं-एक ओर श्रृंगार रस एवं भक्ति रस से संपृक्त मर्मस्पर्शी कवित्त सवैये तथा दूसरी और स्वदेश प्रेम से सराबोर कविताएँ। उर्दू में भी वे 'रसा' उपनाम से कवितायें करते थे। हिन्दी भाषा की सेवा में उन्होंने दो पत्रिकाएँ 'कवि वचन सुधा' (१९२५) तथा 'हरिश्चंद्र मैगजीन' (1930) का प्रकाशन किया।
भारतेंदु ने गद्य विधा के विकास में अनुपम योगदान दिया। नाटक, निबंध तथा आलोचना का तो प्रारम्भ भी वास्तविक रूप में भारतेंदु के ही लेखनी से हुआ। भारतेंदु के प्रभाव से उनके अल्प जीवनकाल में लेखकों का एक मंडल तैयार हो गया था जिसे भारतेंदु मंडल के नाम से जाना गया। इसमे पंडित प्रताप नारायण मिश्र, बद्री नारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह एवं पंडित बाल कृष्ण भट्ट जैसे विद्वान सम्मिलित थे। इन सभी ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिन्दी गद्य की सभी विधाओं में अपना योगदान दिया।
हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख विधा 'नाटक' का क्षेत्र में भारतेंदु युगप्रवर्तक का रूप में सामने आते है। इन्होने हिन्दी में अनुदित तथा मौलिक दोनों प्रकार की रचने की। इनके नाटको में राष्ट्रीय जागरण का छाप स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ता है तथा वे पूर्णतया मंचनीय है। 'वैदिक हिंसा न भवति', 'चन्द्रावली', 'विष विषमौषधम', भारत दुर्दशा', 'नील देवी', अंधेर नगरी', 'प्रेम-जोगिनी ' 'सती-प्रताप' इत्यादि इनकी मौलिक रचनाएँ है। इसके अलावे भारतेंदु ने कई नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। इनके मंडल के अन्य लेखकों ने भी कई नाटक लिखे।
नाटक के बाद निबंध लेखन का आरम्भ भी भारतेंदु से ही मानी होना चाहिए। भारतेंदु ने इतिहास, धर्म, कला, समाज-सुधर, जीवनी,यात्रा-वृतांत, भाषा इत्यादि विषयों पर कई निबंध लिखे। इनके निबंध हरिश्चंद्र मैगजीन में प्रकाशित होते थे। प्रताप नारायण मिश्र तथा बाल कृष्ण भट्ट ने भी कई निबंधों की रचना की।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कालिदास, जयदेव, सूरदास, शंकराचार्य, मुग़ल बादशाहों आदि की जीवनियाँ भी लिखीं जो 'चरितावली', 'बादशाह-दर्पण', 'उदयपुरोदय' तथा 'बूंदी के राजवंश' नामक ग्रंथों में संकलित है। भारतेंदु ने 'सरयू पार की यात्रा', 'लखनऊ की यात्रा' और 'हरिद्वार की यात्रा' जैसी यात्रावृत्त विषयक रचनाएँ भी की जो 'कवि वचन सुधा' के अंकों में प्रकाशित हुई थी।
हिन्दी साहित्य की गद्यात्मक के विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र के योगदान को इतने शब्दों में नही परखा जा सकता है। निबंध और नाटक के प्रारम्भ का श्री निश्चय ही भारतेंदु को जाता है पर इससे भी आगे हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कारं एवं एक व्यवस्थित रूप प्रदान करने का जो महती कार्य इन्होने किया वह भारतेंदु को हिन्दी गद्य के आधार स्तम्भ के रूप में स्थापित करता है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
5 टिप्पणियां:
हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अवदान को कभी भी नहीं भुलाया जा सकता। 35 साल से भी कम उनका जीवन रहा। लेकिन इतनी अल्प अवधि में हिन्दी के लिए जितने कार्य उन्होंने किए, वे मिसाल हैं। इस महापुरुष का स्मरण कराने के लिए आभार।
भारतेन्दु जी का हिन्दी सहित्य जगत युगों- युगों तक ऋणी रहेगा.
आभार
हिन्दी के चिरागों को समर्पित यह ब्लाग देखकर अपार हर्ष हो रहा है।
इसमें भी भारतेन्दु का तो कहना ही क्या है। उन्होने हिन्दीको दिशा दी; उन्होने उस नींव का निर्मण किया जिस पर हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में उभरी। उन्होने सोयी हुई हिन्दी जनता को नवचेतना दी।
Bahut hi achhi
Bahut hi achhi
एक टिप्पणी भेजें