हिन्दी साहित्यिक विकास के एक लंबे दौर से गुजरी है और इस दौरान कई उतार-चढाओं, बदलावों तथा नई प्रवृतियों से इसका परिचय हुआ। इस विकास-पथ पर यात्रा के दौरान कई सृजनकारों ने अपनी सृजनात्मक क्षमता से हिन्दी को अनमोल रचना रूपी आभूषणों से विभूषित किया है। चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य विधा, हिन्दी के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग साहित्यिक पहचान बनाई है. इन्ही मनीषियों तथा इनकी रचनाओं से जुड़ने की मैं एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ।

31 अगस्त 2008

भारतेंदु हरिश्चंद्र: हिन्दी गद्य के पुरोधा

भारतेंदु हरिश्चंद्र हिन्दी साहित्य की गद्य विधा के आधार स्तम्भ हैं। यद्यपि हिन्दी गद्य-साहित्य का प्रारम्भ मुंशी सदासुख लाल, इंशा अल्ला खां, लल्लू लाल एवं सदल मिश्र के द्वारा माना जाता है पर वह हिन्दी गद्य का नमूना मात्र था। भारतेंदु ने हिन्दी गद्य की भाषा को परिमार्जित तथा सुव्यवस्थित किया। भारतेंदु के पूर्व राजा शिवप्रसाद सितारेहिंद एवं राजा लक्ष्मण सिंह ने भी गद्य लेखन का कार्य किया पर उनकी भाषा दोषपूर्ण थी। भारतेंदु ने उपरोक्त लेखकों के गद्य की त्रुटियों को परिस्कृत किया और हिन्दी गद्य को व्यवस्थित रूप प्रदान किया।
भारतेंदु का काल पुनर्जागरण का काल था। औपनिवेशिक शाषण काल में देश में नए-नए विचारों एवं भावनाओं का आगमन हो रहा था। ऐसे में जो राष्ट्रीय जागृति का प्रसार हो रहा था उसे भारतेंदु ने हिन्दी साहित्य में स्थान प्रदान किया और तत्कालीन सन्दर्भों से जुड़ी रचनाएँ की।
भारतेंदु ने कवि के रूप में भी रचनाएँ की। उनकी कविता मुख्यतः दो धाराओं में प्रवाहित हुई हैं-एक ओर श्रृंगार रस एवं भक्ति रस से संपृक्त मर्मस्पर्शी कवित्त सवैये तथा दूसरी और स्वदेश प्रेम से सराबोर कविताएँ। उर्दू में भी वे 'रसा' उपनाम से कवितायें करते थे। हिन्दी भाषा की सेवा में उन्होंने दो पत्रिकाएँ 'कवि वचन सुधा' (१९२५) तथा 'हरिश्चंद्र मैगजीन' (1930) का प्रकाशन किया।
भारतेंदु ने गद्य विधा के विकास में अनुपम योगदान दिया। नाटक, निबंध तथा आलोचना का तो प्रारम्भ भी वास्तविक रूप में भारतेंदु के ही लेखनी से हुआ। भारतेंदु के प्रभाव से उनके अल्प जीवनकाल में लेखकों का एक मंडल तैयार हो गया था जिसे भारतेंदु मंडल के नाम से जाना गया। इसमे पंडित प्रताप नारायण मिश्र, बद्री नारायण चौधरी, ठाकुर जगमोहन सिंह एवं पंडित बाल कृष्ण भट्ट जैसे विद्वान सम्मिलित थे। इन सभी ने भारतेंदु हरिश्चंद्र के नेतृत्व में हिन्दी गद्य की सभी विधाओं में अपना योगदान दिया।
हिन्दी साहित्य की एक प्रमुख विधा 'नाटक' का क्षेत्र में भारतेंदु युगप्रवर्तक का रूप में सामने आते है। इन्होने हिन्दी में अनुदित तथा मौलिक दोनों प्रकार की रचने की। इनके नाटको में राष्ट्रीय जागरण का छाप स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ता है तथा वे पूर्णतया मंचनीय है। 'वैदिक हिंसा न भवति', 'चन्द्रावली', 'विष विषमौषधम', भारत दुर्दशा', 'नील देवी', अंधेर नगरी', 'प्रेम-जोगिनी ' 'सती-प्रताप' इत्यादि इनकी मौलिक रचनाएँ है। इसके अलावे भारतेंदु ने कई नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया है। इनके मंडल के अन्य लेखकों ने भी कई नाटक लिखे।
नाटक के बाद निबंध लेखन का आरम्भ भी भारतेंदु से ही मानी होना चाहिए। भारतेंदु ने इतिहास, धर्म, कला, समाज-सुधर, जीवनी,यात्रा-वृतांत, भाषा इत्यादि विषयों पर कई निबंध लिखे। इनके निबंध हरिश्चंद्र मैगजीन में प्रकाशित होते थे। प्रताप नारायण मिश्र तथा बाल कृष्ण भट्ट ने भी कई निबंधों की रचना की।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने कालिदास, जयदेव, सूरदास, शंकराचार्य, मुग़ल बादशाहों आदि की जीवनियाँ भी लिखीं जो 'चरितावली', 'बादशाह-दर्पण', 'उदयपुरोदय' तथा 'बूंदी के राजवंश' नामक ग्रंथों में संकलित है। भारतेंदु ने 'सरयू पार की यात्रा', 'लखनऊ की यात्रा' और 'हरिद्वार की यात्रा' जैसी यात्रावृत्त विषयक रचनाएँ भी की जो 'कवि वचन सुधा' के अंकों में प्रकाशित हुई थी।
हिन्दी साहित्य की गद्यात्मक के विकास में भारतेंदु हरिश्चंद्र के योगदान को इतने शब्दों में नही परखा जा सकता है। निबंध और नाटक के प्रारम्भ का श्री निश्चय ही भारतेंदु को जाता है पर इससे भी आगे हिन्दी गद्य की भाषा का परिष्कारं एवं एक व्यवस्थित रूप प्रदान करने का जो महती कार्य इन्होने किया वह भारतेंदु को हिन्दी गद्य के आधार स्तम्भ के रूप में स्थापित करता है।

30 अगस्त 2008

निराला: एक परिचय

निराला जी हिन्दी साहित्य के महानतम सृजनकारों में से एक हैं। छायावाद की धुरी रहने के बावजूद निराला की कविताओं में प्रगतिवाद की नीव भी स्पष्टतया परिलक्षित होती है। उनके दुर्धर्ष संघर्ष की क्षमता उन्हें मात्र एक रचनाकार न रहने देकर एक साहित्यिक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठापित करती है। निराला जी तथा उनके कृतित्व का एक सामान्य परिचय मैं यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्म १८९६ ई0 में बसंत पंचमी के दिन हुआ था। पिता पंडित राम सहाय त्रिपाठी महिषादल स्टेट मेदिनीपुर (बंगाल) में कार्यरत थे। १७-१८ वर्ष की आयु तक पहुँचते ही विपत्तियों का क्रम चल पड़ा। पिता की असामयिक मृत्यु हो गई। जीवन में अपने कुटुम्बों के निधन को इन्हे कई बार सहना पड़ा। पत्नी और फ़िर बाद में पुत्री की मृत्यु ने इनके जीवन को त्रासदी से परिपूर्ण बना दिया था।निराला के जीवन का दूसरा पहलु उनका व्यक्तित्व है। सोना जिस प्रकार आग में तपकर निखरता है, निराला का व्यक्तित्व भी तपकर निखरता चला गया। निराला का आकर्षक व्यक्तित्व विद्रोही और क्रन्तिकारी तत्वों से निर्मित हुआ था और निराला, 'महाप्राण निराला' बन जाते है। अक्टूबर १९६१ में प्रयाग में इस महान रचनाकार ने अपना शरीर त्याग दिया।
निराला जी द्वारा विरचित साहित्य (६७ ग्रन्थ) इस प्रकार है-
कविता-संग्रह- अनामिका भाग-१(१९२३) भाग-२(१९३८), परिमल(१९४०), गीतिका(१९३६), कुकुरमुत्ता(१९४२), अणिमा(१९४३), बेला(१९४६), नए पत्ते(१९४६), अपराह्न(१९५०), आराधना(१९५१), अर्चना(१९५९), श्री रामचरितमानस का खड़ी बोली में रूपांतर एवं वर्षागीत।
खंड काव्य - तुलसीदास (१९३८)।
उपन्यास - अप्सरा, अलका,प्रभावती, निरुपमा, चोटी की पकड़, काले कारनामे, उच्छृन्खल तथा चमेली।
कहानी-संग्रह - लिली, राखी, चतुरी चमार तथा सुकुल की बीबी।
रेखाचित्र - कुल्लीभाट और बिल्लेसुर बकरिहा।
निबंध-संग्रह - प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिभा, चाबुक तथा प्रबंध परिलय।
आलोचनात्मक - रबीन्द्र कविता कानन।
अनुवाद - कथा साहित्य का अनुवाद (आनंद मठ, कपाल कुण्डला, चंद्र शेखर, दुर्गेश नंदिनी, कृष्णकांत का बिल, युग्लान्गुलीय, रजनी, देवी चौधरानी, राधारानी, विष वृक्ष, राज सिंह तथा महाभारत) तथा धार्मिक एवं आध्यात्मिक साहित्य का अनुवाद।
नाटक - समाज, शंकुतला तथा अनिरुद्ध (तीनो अप्रकाशित)।
स्फुट रचनाएँ - हिन्दी बंगला शिक्षक, रस-अलंकार, वात्स्यायन कामसूत्र तथा तुलसी रामायण की टीका।
निराला जी की रचनाओं की एक लम्बी फेहरिस्त इस बात का प्रमाण है की वे मात्र कवि नही थे वरन एक सम्पूर्ण साहित्यकार एवं सृजनकार थे। इसके साथ ही उनकी रचनाएँ एक साहित्यिक क्रांति की चिंगारी के साथ प्रस्फुटित हुई हैं। जीवन में असीम वेदना के साथ दुर्धर्ष संघर्ष ने हिन्दी साहित्य को एक अनमोल रत्न निराला के रूप में दिया जिन्होंने कविता से छंद के बंधन को तोड़कर उसे साहित्याकाश में उड़ने की उन्मुक्तता प्रदान की।