हिन्दी साहित्यिक विकास के एक लंबे दौर से गुजरी है और इस दौरान कई उतार-चढाओं, बदलावों तथा नई प्रवृतियों से इसका परिचय हुआ। इस विकास-पथ पर यात्रा के दौरान कई सृजनकारों ने अपनी सृजनात्मक क्षमता से हिन्दी को अनमोल रचना रूपी आभूषणों से विभूषित किया है। चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य विधा, हिन्दी के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग साहित्यिक पहचान बनाई है. इन्ही मनीषियों तथा इनकी रचनाओं से जुड़ने की मैं एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ।

25 सितंबर 2008

क्रन्तिकारी भक्त कवि कबीरदास

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के कवियों में कबीरदास निर्गुण भक्ति काव्य-धारा में उच्च स्थान पर विराजमान हैं। उनका व्यक्तित्व क्रन्तिकारी व्यक्तित्व है, उन्होंने अपनी बात बेबाक ढंग से कही भले ही वह सामने वाले को कितनी भी चुभी। यद्यपि कबीर के जीवन के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी नही मिल पाई है तथापि विद्वानों ने इस सन्दर्भ में कई बातें सामने रखीं हैं। खैर उनके जन्म और निधन सम्बन्धी जानकारी के प्रामाणिक नही होने के कारण मैं उस पर चर्चा न कर उनके क्रन्तिकारी व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ बातें रखने का प्रयास करता हूँ।

कबीर के व्यक्तित्व का परिचय उनके द्वारा रचित दोहों-साखियों के आधार पर प्राप्त होता है, जिन्हें अधिकांश विद्वानों के मान्यताओं के अनुसार 'बीजक', 'आदिग्रंथ' तथा 'कबीर-ग्रंथावली' में संकलित किया गया है। कबीर ने जो भी कहा अपने अनुभव के बल पर कहा। उन्होंने अपने चतुर्दिक जिस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मूल्यों को ध्वस्त होते देखा वह उनके लिए असह्य था और स्वयम निम्न सामाजिक स्तर से आने के कारण उन्होंने इसे झेला था और इसी आत्मानुभूति ने उन्हें एक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व प्रदान किया जो खुलेआम यह उद्घोष कर सके-
"कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चलै हमारे साथ।।"

यही कबीर की खासियत है की इन्होनें जो कहा साफ-साफ, बिना किसी लाग लपेट के कहा।चाहे वह सांप्रदायिक आधार पर विभेद की बात हो, तत्कालीन समाज में हिन्दुओं तथा मुसलमानों का स्वयम को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ हो, धर्म के ठेकेदारों द्वारा फैलाये जा रहे अन्धविश्वाश का बात हो या फ़िर जातिगत आधार पर उंच-नीच का भेद, कबीर ने सबको एक स्वर में कठोरता के साथ लताड़ा।

उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को अपनी धार्मिक श्रेष्ठता सिद्ध करने की प्रवृति तथा धार्मिक अन्धविश्वासों एवं कर्मकांडों के खिलाफ आवाज उठाते हुए कहा- "पाहन पुजै तो हरि मिलै, तो मैं पुजूँ पहाड़। इससे तो चक्की भली, पुज खाए संसार।।" और फ़िर "कांकड़-पाथर जोड़ के, मस्जिद लियो बनाय। ता चढी मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरो भयो खुदाय।।" इतने पर ही वो न रुके। बाह्याचारी, भक्ति का ढोंग करने वालों को कबीर ने सहज ढंग से परन्तु झकझोरने वाली भाषा का प्रयोग कर तिलमिलाने वाले व्यंग्य के साथ वास्तविकता से परिचय कराया- "ना जाने तेरा साहब कैसा है। मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे, क्या तेरा साहब बहिरा है?चिउंटी के पग नेवर बजै, सो भी साहब सुनता है।। पंडित होय के आसन मारे, लम्बी माला जपता है । अन्तर तेरे कपट-कतरनी, सो भी साहब लखता है।।" यहाँ एक क्रन्तिकारी की आवाज और भक्त का ज्ञान दोनों सम्मिलित है।

निश्चय ही कबीर उच्च कोटि के भक्त कवि हैं। इनकी भक्ति में इश्वर के प्रति प्रेम का समावेश था। इस भक्ति में भी एक अलग बात थी। एक ओर जहाँ सगुण उपासक राम-कृष्ण की भक्ति करते थे वहीं निर्गुण संत अज्ञात ईश्वर की भक्ति में लीन थे पर कबीर ने राम के निर्गुण रूप की कल्पना की और कहा- "दशरथ सूत तिहूँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।" यही उन्हें भक्तों में भी विशिष्ट बनाती है।

वस्तुतः कबीर सर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के समक्ष निरीह, वेशधारी के सामने प्रचंड, दिल के साफ़, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बहार से कठोर, जन्म से अस्पृश्य तथा कर्म से बंदनीय थे। इन सबके पीछे था उनका अनुभव से प्राप्त ज्ञान-सागर। उन्होंने हठ-योग के ज्ञान को भी प्राप्त किया था और ईश्वरीय प्रेम से युक्त भक्ति के रस को भी पिया था। इसी के परिणाम स्वरुप उस कबीर का हिन्दी साहित्य में आगमन हो सका जो यह कह सके-"मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे!मैं कहता हों आँखिन देखि,तू कहता है कागद की लेखी;मैं कहता सुर्झावनहारी,तू राख्यो अरुझाई रे!"

कबीर ने जो कहा उसे किया भी था। माना जाता था की बनारस में प्राण त्याग करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती थी और मगहर में प्राण त्याग करने वाले को नर्क। कबीर आजीवन बनारस में रहे परन्तु मृत्यु के समय मगहर आकर उन्होंने वाही प्राण त्यागे और उस सम्बन्ध में तर्क दिया-"हिरदै कठोर मरया बनारसी नरक न बंच्या जाई। हरि को दास मरे जो मगहर संध्या सकल तिराई।।"

19 सितंबर 2008

लोकहितवादी भक्त कवि: तुलसीदास


हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में भक्त कवियों ने अपने समाज और संस्कृति की रक्षा हेतु काव्य ग्रंथों की रचना की। इस काल में प्रवाहित होने वाली भक्ति काव्य धाराएँ सगुण काव्य तथा निर्गुण काव्य के रूप में दो हिस्सों में विभक्त थी। सगुण काव्य धारा की पुनः दो उपधाराएँ रहीं -एक कृष्ण भक्ति काव्य जिसके शीर्ष पर सूरदास रहे और दूसरी ओर राम भक्ति काव्य जिसके अग्रणी कवि गोस्वामी तुलसीदास थे। तुलसी के काव्य की एक विशिष्टता यह रही कि उनकी रचनाओं में समाज के समक्ष मानवीयता से ओत-प्रोत सामाजिक तथा पारिवारिक मूल्यों के आदर्श रूप को प्रस्तुत किया गया है। भक्ति के साथ-साथ सामाजिक सन्दर्भों से जुड़ी, लोक चिंता से युक्त जो क्षमता तुलसी के काव्य में दिखाई देती है वह सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है।

जीवन वृत्त- तुलसी के जन्म काल सम्बन्धी जानकारियाँ पूर्णतया प्रमाणित नही हो सकी है। कई विद्वानों ने अपने अनुसार प्राप्त प्रमाणों को साक्ष्य मानकर तुलसीदास का जीवन-वृत्त लिखने का कार्य किया है। तुलसीदास के बारे में अनेक जनश्रुतियाँ भी प्रचलित हैं। इनके आधार पर भी तुलसी के जीवन सम्बन्धी कई बातें मान्य हो गई हैं। सर्वाधिक प्रचलित मान्यता के अनुसार तुलसी का जन्म १५८९ ई० में पिता आत्माराम दुबे तथा माता हुलसी के घर उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। इसी सन्दर्भ में इनकी मृत्यु १६८० ई० में मानी जाती है तथा इससे सम्बंधित यह दोहा प्रसिद्द है- "संवत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर।।"

गोस्वामी जी ने अपने बचपन के सम्बन्ध में अपने काव्य में लिखा है जिससे पता चलता है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही अपने माता-पिता से बिछोह के उपरांत भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करते थे। परम्परा के अनुसार इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। इनका विवाह रत्नावली के संग हुआ और माना जाता है की उसी के व्यंग्य वाणों से आहत होकर इन्होने वैराग्य ग्रहण कर लिया था।

कृतित्व- तुलसी के रचनाओं के सम्बन्ध में भी कई विद्वानों ने खोज कार्य किया है। उनके द्वारा रचित मान्य ग्रन्थ हैं-

रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, गीतावली, कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण, विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली ओर हनुमान बाहुक।

गोस्वामी जी ने अवधी तथा ब्रजभाषा दोनों में रचनाएँ की है। रामचरितमानस, रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, बरवै रामायण की भाषा जहाँ अवधी है वहीँ गीतावली , कृष्ण गीतावली, विनय-पत्रिका, कवितावली, हनुमान बाहुक, दोहावली एवं सतसई की भाषा ब्रजभाषा है।

गोस्वामी जी के काव्य की विशिष्टता ही उन्हें हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं- "एक ओर तो उनकी वाणी व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागयुक्त शुद्ध भगवदभक्ति का उपदेश करती हैदूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती हैव्यक्तिगत साधन के साथ-ही-साथ लोक धर्म की अत्यन्त उज्जवल छटा उसमें वर्तमान है।" यह एक ऐसी विशिष्टता है जो तुलसी को लोकहितवादी तुलसी बनती है। उन्होंने प्रत्येक स्टार पर मर्यादा के पालन पर बल दिया एवं प्रत्येक अवसर पर सदाचार को सर्वोपरि बताया।

एक और प्रवृति उन्हें भक्त कवियों में श्रेष्ठता प्रदान करती है , वह है समन्वय की भावना। उन्होंने ज्ञान और भक्ति, शिव और विष्णु, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत की एकता पर बल दिया तथा धर्म को लोकग्राह्य सामान्य रूप में प्रस्तुत किया।

इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने न सिर्फ़ राम भक्ति की परम्परा को आगे बढाया वरन उससे कहीं आगे बढ़कर लोकहित की भावना से काव्य की रचना की। मर्यादा और पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों के सागर रामचरितमानस के साथ वे लगभग प्रत्येक हिंदू घर में विराजमान हैं।


13 सितंबर 2008

जयशंकर प्रसाद: जीवन तथा कृतित्व



जयशंकर प्रसाद छायावाद के चतुःस्तंभों पन्त, महादेवी, पन्त तथा प्रसाद में से एक महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं। प्रसाद जी ने हिन्दी साहित्य की काव्य, नाटक, कहानी तथा निबंध विधाओं में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहाँ मैं इनके जीवन तथा रचना संसार से संक्षिप्त परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा हूँ-
जयशंकर प्रसाद का जन्म १८७८ ई० में वाराणसी (उ० प्र०) में पिता श्री देवी प्रसाद साहू के घर में हुआ था जो एक अत्यन्त समृद्ध व्यवसायी थे। प्रारंभिक शिक्षा घर पर ही प्रारम्भ हुई तथा संस्कृत, हिन्दी, फारसी तथा उर्दू के लिए अलग-अलग शिक्षक नियुक्त हुए। इसके उपरांत वाराणसी के क्वींस इंटर कॉलेज में अध्ययन किया। इनका विपुल ज्ञान इनकी स्वाध्याय की प्रवृति थी और अपने अध्यवसायी गुण के कारण छायावाद के महत्वपूर्ण स्तम्भ बने तथा हिन्दी साहित्य को अपनी रचनाओं के रूप में कई अनमोल रत्न प्रदान किए।
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया।
'कामायनी' जैसे महाकाव्य के रचयिता प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है। इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत है-
काव्य-चित्राधार, कानन कुसुम, प्रेम-पथिक, महाराणा का महत्व, झरना, करुणालय, आंसू, लहर एवं कामायनी।
नाटक- सज्जन, कल्याणी परिणय, प्रायश्चित, राज्यश्री, विशाख, कामना, जन्मेजय का नागयज्ञ, स्कंदगुप्त, एक घूंट, चन्द्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी।
कथा संग्रह- छाया, प्रतिध्वनी, आकाश दीप, आंधी, इंद्रजाल।
उपन्यास- कंकाल, तितली, इरावती।
निबंध संग्रह- काव्य और कला तथा अन्य निबंध।
इस प्रकार हिन्दी साहित्य की सभी महत्वपूर्ण विधाओं में इनकी रचनाएँ इनकी प्रखर सृजनशीलता का प्रमाण हैं। प्रसाद छायावाद ही नही वरन हिन्दी साहित्याकाश में अनवरत चमकते नक्षत्र हैं। इनके द्वारा सृजित इनकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य थाती हैं।

08 सितंबर 2008

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद




हिन्दी साहित्य की दो प्रमुख विधाओं कहानी एवं उपन्यास को साहित्याकाश में स्थापित करने का श्रेय निश्चय ही मुंशी प्रेमचंद को जाता है। उपन्यास में यथार्थवाद की जिस प्रकार से उन्होंने प्रस्तुति की वह उपन्यास को सीधे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ने के लिए आवश्यक था। यहाँ मैं उनके जीवन एवं कृतित्व को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ

३१ जुलाई १८८० को उ० प्र० के काशी के समीप लमही नामक गाँव में जन्मे धनपत राय बड़े होकर हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के रूप में प्रसिद्ध हुए इनके पिताश्री का नाम अजब राय एवं माताश्री का आनंदी देवी था लगभग वर्ष की उम्र में माता साथ छोड़ स्वर्गवासी हो गई

१८८५ से इन्होने विद्या अध्ययन प्रारम्भ किया प्रारम्भ में एक मौलवी साहब से उर्दू की शिक्षा प्राप्त की फ़िर १३ वर्ष की उम्र में मिडिल स्कूल में दाखिला लिया पुरे विद्यार्थी जीवन में संघर्ष करते हुए प्रेमचंद ने बि० ए० की परीक्षा भी उत्तीर्ण की

१५ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया। पत्नी कुरूप तथा स्वाभाव से अत्यन्त तीक्ष्ण थी दांपत्य जीवन में क्लेश गया। प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा शिवरानी देवी के साथ सुखी दांपत्य जीवन जीने लगे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया तथा आगे चलकर शिक्षा विभाग के सब-इंसपेक्टर के छोड़में प्रोन्नति पाई

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आन्दोलन (१९२०) से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी छोड़ संपादन का कार्य प्रारम्भ किया। इस क्षेत्र में इन्होने 'मर्यादा', 'हंस', जागरण' तथा 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया। जीवन के अन्तिम दिनों में वे फ़िल्म क्षेत्र में कार्य करने के लिए बम्बई आ गए पर गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। ८ अक्टूबर १९३६ ई० को इस महान लेखक ने अपना शरीर त्याग दिया।

प्रेमचंद ने एक साहित्यकार के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में अपना पूर्ण योगदान दिया। अपनी पहली कहानी 'दुनिया के सबसे अनमोल रत्न' में उन्होंने मातृभूमि की सेवा में बहाए गए खून की प्रत्येक बूंद को संसार का सबसे अनमोल रत्न बताया। १९०८ ई० में उनका प्रथम कहानी संग्रह सोजे-वतन प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका में प्रेमचंद ने बंग-भंग आन्दोलन को लक्ष्य करके अपने विचार रखे थे। हम्मीरपुर के कलक्टर ने शोजे वतन की शेष प्रतियाँ लेकर जला दी थी तथा उन्हें आदेश दिया था की प्रकाशन से पूर्व उसे वे प्रत्येक पंक्तिया दिखा दिया करें।

प्रेमचंद का रचना संसार- प्रेमचंद ने यथार्थ को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। प्रारंभिक रचनाओं में यथार्थ आदर्शवाद के साथ जुड़कर आता है और प्रेमचंद गांधीवाद से रचनाकाल के मध्य की रचनाओं में प्रभावित दिखते है पर गोदान जैसी महान रचना तक आते-आते गांधीवाद से भी उनका मोहभंग होता है और वे विशुद्ध यथार्थ जिसे नग्न यथार्थ भी कहा जाता है ,को प्रस्तुत करते हैं। उनका कृतित्व संक्षेप में निम्नवत है-
उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन(१९१६), प्रेमाश्रम(१९२२), निर्मला(१९२३), रंगभूमि(१९२४), कायाकल्प(१९२६), गबन(१९३१), कर्मभूमि(१९३२), गोदान(१९३२), मंगल-सूत्र(१९३६-अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह- प्रेमचंद ने कई कहानियाँ लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे ३०० के लगभग कहानियाँ है। ये शोजे वतन, सप्त सरोज, नमक का दारोगा, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिमा, प्रेम तिथि, पञ्च फूल, प्रेम चतुर्थी, प्रेम प्रतिज्ञा, सप्त सुमन, प्रेम पंचमी, प्रेरणा, समर यात्रा, पञ्च प्रसून, नवजीवन इत्यादि नामों से प्रकाशित हुई थी।
प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियोन का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।
नाटक- संग्राम(१९२३), कर्बला(१९२४) एवं प्रेम की वेदी(१९३३)
जीवनियाँ- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कहानी)
बाल रचनाएँ- मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियाँ, राम चर्चा।
इनके अलावे प्रेमचंद ने कुछ स्फुट रचनाएँ तथा अनेक विख्यात लेखकों यथा- जार्ज इलियट, टालस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियो के अनुवाद भी किया।

इस प्रकार प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नई दिशा दी। यथार्थ को साहित्य में स्थान प्रदान कर समाज के यथार्थ को पाठको तक पहुचने का कार्य कर उन्होंने साहित्य को समाज का आईना निर्धारित किया। अपनी रचनाओं में समस्त समस्याओं के मध्य उन्होंने मानव की मानवता को तलाशा जो मानवीय मूल्यों से संपृक्त हो। उनके पत्र जन-सामान्य से ही निकलकर आते रहे, सबलताओं तथा दुर्बलताओं से ग्रस्त और फ़िर जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने के साथ-साथ उनसे संघर्ष करते रहे।

प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य के एक युग प्रवर्तक हैं। हिन्दी साहित्य की उपन्यास विधा के उनके रचना युग को प्रेमचंद युग कहा गया। यहीं से कथा साहित्य में यथार्थ बोध के प्रस्तुति के साथ एक नई परम्परा की शुरुआत हुई.

04 सितंबर 2008

हिन्दी आलोचना के युगपुरुष: आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिन्दी समालोचना के युगपुरुष हैं। वे हिन्दी साहित्य में प्रौढ़ समालोचना के जन्मदाता हैं। शुक्ल जी के साहित्यिक आलोचना के प्रभाव को इस बात से भी आँका जा सकता है कि हिन्दी आलोचना के इतिहास को तिन भागों में विद्वानों ने विभक्त किया है- १.शुक्ल्पुर्व आलोचना, २.शुक्ल युगीन आलोचना तथा ३.शुक्लोत्तर आलोचना। उनके पूर्व बाल मुकुंद गुप्त तथा अन्य विद्वानों ने यद्यपि इस क्षेत्र में कार्य किया था परन्तु वैज्ञानिक समीक्षा पद्यति को शुक्ल जी ने ही प्रौढ़ता प्रदान किया एवं हिन्दी आलोचना को एक नई दिशा दिखाने का कार्य किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुख्यतः तुलसीदास, सूरदास एवं जायसी की रचनाओं पर समीक्षा प्रस्तुत किया तथा इन कवियों की रचनाओं का मूल्यांकन किया तथापि तुलसीदास उनके प्रिय कवि थे जिसका कारण तुलसीदास का भक्ति के साथ लोक के समन्वय की विशिष्टता थी। शुक्ल जी रसवादी समालोचक थे तथा प्रतिभा युक्त नैतिकवादी साहित्यकार। इसी कारण शुक्ल जी ने रचनाओं को सर्वदा लोक-तत्त्व की भावभूमि पर परखने का प्रयास किया। इसी सन्दर्भ में तुलसी उनके प्रिय रचनाकार बने।
समालोचना सम्बन्धी उनके साहित्य हिन्दी के अमूल्य थाती हैं। 'रस मीमांसा', जायसी, सूरदास तथा तुलसी की समीक्षाएं, सैधांतिक समीक्षा सम्बन्धी निबंध ( कविता क्या है?, काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था, रसात्मक बोध के विविध रूप, काव्य में प्राकृतिक दृश्य इत्यादि) एवं व्यावहारिक समीक्षा सम्बन्धी निबंध (भारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग, मानस की धर्मभूमि, काव्य में रहस्यवाद आदि) शुक्ल जी के द्वारा प्रदान किए गए हिन्दी साहित्य के अनमोल रत्न हैं।
तुलसी, सुर एवं जायसी जैसे मध्यकालीन कवियों का गंभीर मूल्यांकन कर शुक्ल जी ने एक और व्यावहारिक आलोचना का आदर्श प्रस्तुत किया वहीं 'चिंतामणि' और ''रस मीमांसा' जैसे ग्रंथों से सैद्धांतिक आलोचना को नई ऊंचाई प्रदान किया। अपने सैद्धांतिक समीक्षा सम्बन्धी निबंधों के द्वारा शुक्ल जी ने अपनी काव्यशास्त्रीय मेधा तथा भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य शास्त्र के गंभीर ज्ञान तथा व्यापक लोकानुभव का प्रमाण दिया है।
वस्तुतः हिन्दी समालोचना के क्षेत्र में आचार्य शुक्ल पथ-प्रदर्शक बने। उन्होंने व्यावहारिक के साथ-साथ सैद्धांतिक एवं शास्त्रीय समालोचना के भी नए प्रतिमान प्रस्तुत किए। साथ ही उन्होंने हिन्दी की सैद्धांतिक आलोचना को पश्चिम तथा सामान्य विवेचन के धरातल से उठाकर गंभीर मूल्यांकन एवं व्यावहारिक सिधांत प्रतिपादन की उच्च भूमि प्रदान की।