हिन्दी साहित्यिक विकास के एक लंबे दौर से गुजरी है और इस दौरान कई उतार-चढाओं, बदलावों तथा नई प्रवृतियों से इसका परिचय हुआ। इस विकास-पथ पर यात्रा के दौरान कई सृजनकारों ने अपनी सृजनात्मक क्षमता से हिन्दी को अनमोल रचना रूपी आभूषणों से विभूषित किया है। चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य विधा, हिन्दी के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग साहित्यिक पहचान बनाई है. इन्ही मनीषियों तथा इनकी रचनाओं से जुड़ने की मैं एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ।

18 अप्रैल 2010

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर'


राष्ट्रीयता एवं जागरण की चेतना के साथ-साथ भारत के गौरवमयी अतीत की पहचान तथा रुढियों की जंजीरों में जकड़ी वर्त्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष से उत्पन्न क्रांति की आहवान करने वाले राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का एक परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ
भारतीय उर्जस्विता को काव्य रूप में प्रस्तुत करने वाले जन कवि 'दिनकर' ने बिहार के मुंगेर जिले के सिमरियाघट नामक ग्राम में एक सामान्य किसान रवि सिंह तथा उनकी पत्नी मन रूप देवी के पुत्र के रूप में २३ सितम्बर १९०८ को जन्म लिया।
शिक्षा-दीक्षा- संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए इन्होने गाँव के प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं तदोपरांत निकटवर्ती बोरो नमक ग्राम में राष्ट्रीय मिडल स्कूल जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त कियायही से इनके मनो मस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा थाहाई स्कूल की शिक्षा इन्होने मोकामाघाट हाई स्कूल से प्राप्त कीइसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थेपटना विश्वविद्यालय से इन्होने बी० ए० आनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की
जीवन-संघर्ष- बी० ए० उत्तीर्ण करने तक घर की स्थिति खराब हो चुकी थी अतएव इन्होने एक नवस्थापित हाई स्कूल के प्रधानाध्यापक की नौकरी स्वीकार कर ली पर जमींदारों के दबावों को देखते हुए पराधीनता के धुर विरोधी 'दिनकर' ने यह नौकरी छोड़ दीइसके उपरान्त उन्होंने सरकार की और से प्रदत्त सब-रजिस्ट्रार का पद स्वीकार किया पर यहाँ भी पहले पांच वर्षों में ही बीस बार से ज्यादा स्थानांतरण किया गया तथा अंग्रेज सरकार के गुप्तचर पीछे लगे रहेजय प्रकाश नारायण के कहने पर नौकरी में बने रहे एवं बाद में सरकार ने इन्हें प्रचार-विभाग में नियुक्त कर दियाअब तक इन्होने लिखना प्रारंभ कर दिया था 'रेणुका', 'प्राणभंग', 'हुंकार', 'रसवंती' एवं 'द्वंद्वगीत' इनके संघर्ष काल की रचनाएं हैंद्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के उपरांत डेढ़ साल का अवकाश लेकर दिनकर जी ने युद्ध के प्रश्न को लेकर अपनी अनुभूति एवं मानसिक द्वंद्व तथा पीड़ा को 'कुरुक्षेत्र' के रूप में महाकाव्य में प्रस्तुति प्रदान की साथ ही 'उदयाचल' नमक अपनी एक प्रकाशन संस्था का प्रारंभ किया
सन १९५२ ई० में ये भारतीय संसद के राज्य सभा के सदस्य बने तथा १९५५ ई० में इन्हें पोलैंड की राजधानी वारसा में भारत सरकार की ओर से विश्व-कवि-सम्मलेन में भारतीय प्रतिनिधित्व करने के लिए भेजा गया१९५९ ई० में इन्हें राष्ट्रभाषा आयोग का सदस्य नियुक्त किया गया तथा इसी वर्ष पद्मभूषण द्वारा सम्मानित किया गया'संस्कृति के चार अध्याय' पुस्तक पर दिनकर को ९५९ ई० में ही साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ१९६२ ई० में भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डि० लिट० की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया तथा फिर वे भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति बनेसन १९६५ से १९७१ तक दिनकर भारत सरकार के हिंदी सलाहकार रहे२५ अप्रैल १९७४ को इनके देहावसान के रूप में हिंदी साहित्य जगत को एक अपूर्णनीय क्षति हुयी
कृतित्व- दिनकर जी ने गद्य एवं पद्य दोनों क्षेत्रों में उत्कृष्ट योगदान दिया है-
पद्य - .प्राणभंग .रेणुका .हुंकार .रसवंती .द्वंद्वगीत .कुरुक्षेत्र .सरसधेनी .बापू .इतिहास के आंसू १०.धुप और धुंआ ११.रश्मि राठी १२.दिल्ली १३.नीम के पत्ते १४.नील कुसुम १५.चक्रवाल १६.कविश्री १७.सीपी और शंख १८.नए सुभाषित १९.उर्वशी २०.परशुराम की प्रतीक्षा
गद्य- .अर्ध नारीश्वर .मिट्टी की ओर .रेती के फूल .हमारी सांस्कृतिक एकता .संस्कृति के चार अध्याय .शुद्ध कविता की खोज .काव्य की भूमिका आदि
इन रचनाओं के अतिरिक्त इन्होने बालोपयोगी साहित्य की भी रचनाएं की हैं- चित्तोड़ का साका, सूरज का ब्याह, धुप-छाँह एवं मिर्च का मजा
वस्तुतः रामधारी सिंह दिनकर एक युगद्रष्टा कवि थे जिन्होंने स्थायी शांति एवं स्वत्व की रक्षा के लिए अपनी लेखनी को क्रांतिकारी रूप प्रदान कियाउनके व्यक्तित्व का परिचय श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने इस प्रकार दिया था- "दिनकर इन्द्रधनुष है जिसपर अंगारे खेलते हैं।" कविवर दिनकर की ये पंक्तियाँ भी कुछ ऐसा ही उद्घोष करती हैं- जहाँ जहाँ घन तिमिर ह्रदय में भर दो वहां बिभा प्यारी,/ दुर्बल प्राणों की नस-नस में देव! फूंक दो चिंगारी ये पंक्तियाँ दिनकर को राष्ट्रीय मानसिकता, उर्जस्विता, साहस और आक्रोश के कवि के रूप में स्थापित करते हैं

25 सितंबर 2008

क्रन्तिकारी भक्त कवि कबीरदास

हिन्दी साहित्य के भक्तिकाल के कवियों में कबीरदास निर्गुण भक्ति काव्य-धारा में उच्च स्थान पर विराजमान हैं। उनका व्यक्तित्व क्रन्तिकारी व्यक्तित्व है, उन्होंने अपनी बात बेबाक ढंग से कही भले ही वह सामने वाले को कितनी भी चुभी। यद्यपि कबीर के जीवन के संबंध में कोई प्रामाणिक जानकारी नही मिल पाई है तथापि विद्वानों ने इस सन्दर्भ में कई बातें सामने रखीं हैं। खैर उनके जन्म और निधन सम्बन्धी जानकारी के प्रामाणिक नही होने के कारण मैं उस पर चर्चा न कर उनके क्रन्तिकारी व्यक्तित्व के सम्बन्ध में कुछ बातें रखने का प्रयास करता हूँ।

कबीर के व्यक्तित्व का परिचय उनके द्वारा रचित दोहों-साखियों के आधार पर प्राप्त होता है, जिन्हें अधिकांश विद्वानों के मान्यताओं के अनुसार 'बीजक', 'आदिग्रंथ' तथा 'कबीर-ग्रंथावली' में संकलित किया गया है। कबीर ने जो भी कहा अपने अनुभव के बल पर कहा। उन्होंने अपने चतुर्दिक जिस प्रकार सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक मूल्यों को ध्वस्त होते देखा वह उनके लिए असह्य था और स्वयम निम्न सामाजिक स्तर से आने के कारण उन्होंने इसे झेला था और इसी आत्मानुभूति ने उन्हें एक क्रान्तिकारी व्यक्तित्व प्रदान किया जो खुलेआम यह उद्घोष कर सके-
"कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चलै हमारे साथ।।"

यही कबीर की खासियत है की इन्होनें जो कहा साफ-साफ, बिना किसी लाग लपेट के कहा।चाहे वह सांप्रदायिक आधार पर विभेद की बात हो, तत्कालीन समाज में हिन्दुओं तथा मुसलमानों का स्वयम को श्रेष्ठ सिद्ध करने की होड़ हो, धर्म के ठेकेदारों द्वारा फैलाये जा रहे अन्धविश्वाश का बात हो या फ़िर जातिगत आधार पर उंच-नीच का भेद, कबीर ने सबको एक स्वर में कठोरता के साथ लताड़ा।

उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को अपनी धार्मिक श्रेष्ठता सिद्ध करने की प्रवृति तथा धार्मिक अन्धविश्वासों एवं कर्मकांडों के खिलाफ आवाज उठाते हुए कहा- "पाहन पुजै तो हरि मिलै, तो मैं पुजूँ पहाड़। इससे तो चक्की भली, पुज खाए संसार।।" और फ़िर "कांकड़-पाथर जोड़ के, मस्जिद लियो बनाय। ता चढी मुल्ला बाँग दे, क्या बहिरो भयो खुदाय।।" इतने पर ही वो न रुके। बाह्याचारी, भक्ति का ढोंग करने वालों को कबीर ने सहज ढंग से परन्तु झकझोरने वाली भाषा का प्रयोग कर तिलमिलाने वाले व्यंग्य के साथ वास्तविकता से परिचय कराया- "ना जाने तेरा साहब कैसा है। मस्जिद भीतर मुल्ला पुकारे, क्या तेरा साहब बहिरा है?चिउंटी के पग नेवर बजै, सो भी साहब सुनता है।। पंडित होय के आसन मारे, लम्बी माला जपता है । अन्तर तेरे कपट-कतरनी, सो भी साहब लखता है।।" यहाँ एक क्रन्तिकारी की आवाज और भक्त का ज्ञान दोनों सम्मिलित है।

निश्चय ही कबीर उच्च कोटि के भक्त कवि हैं। इनकी भक्ति में इश्वर के प्रति प्रेम का समावेश था। इस भक्ति में भी एक अलग बात थी। एक ओर जहाँ सगुण उपासक राम-कृष्ण की भक्ति करते थे वहीं निर्गुण संत अज्ञात ईश्वर की भक्ति में लीन थे पर कबीर ने राम के निर्गुण रूप की कल्पना की और कहा- "दशरथ सूत तिहूँ लोक बखाना, राम नाम का मरम है आना।" यही उन्हें भक्तों में भी विशिष्ट बनाती है।

वस्तुतः कबीर सर से पैर तक मस्तमौला, स्वभाव से फक्कड़, आदत से अक्खड़, भक्त के समक्ष निरीह, वेशधारी के सामने प्रचंड, दिल के साफ़, दिमाग से दुरुस्त, भीतर से कोमल, बहार से कठोर, जन्म से अस्पृश्य तथा कर्म से बंदनीय थे। इन सबके पीछे था उनका अनुभव से प्राप्त ज्ञान-सागर। उन्होंने हठ-योग के ज्ञान को भी प्राप्त किया था और ईश्वरीय प्रेम से युक्त भक्ति के रस को भी पिया था। इसी के परिणाम स्वरुप उस कबीर का हिन्दी साहित्य में आगमन हो सका जो यह कह सके-"मेरा तेरा मनुआ कैसे इक होई रे!मैं कहता हों आँखिन देखि,तू कहता है कागद की लेखी;मैं कहता सुर्झावनहारी,तू राख्यो अरुझाई रे!"

कबीर ने जो कहा उसे किया भी था। माना जाता था की बनारस में प्राण त्याग करने वाले को स्वर्ग की प्राप्ति होती थी और मगहर में प्राण त्याग करने वाले को नर्क। कबीर आजीवन बनारस में रहे परन्तु मृत्यु के समय मगहर आकर उन्होंने वाही प्राण त्यागे और उस सम्बन्ध में तर्क दिया-"हिरदै कठोर मरया बनारसी नरक न बंच्या जाई। हरि को दास मरे जो मगहर संध्या सकल तिराई।।"

19 सितंबर 2008

लोकहितवादी भक्त कवि: तुलसीदास


हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में भक्त कवियों ने अपने समाज और संस्कृति की रक्षा हेतु काव्य ग्रंथों की रचना की। इस काल में प्रवाहित होने वाली भक्ति काव्य धाराएँ सगुण काव्य तथा निर्गुण काव्य के रूप में दो हिस्सों में विभक्त थी। सगुण काव्य धारा की पुनः दो उपधाराएँ रहीं -एक कृष्ण भक्ति काव्य जिसके शीर्ष पर सूरदास रहे और दूसरी ओर राम भक्ति काव्य जिसके अग्रणी कवि गोस्वामी तुलसीदास थे। तुलसी के काव्य की एक विशिष्टता यह रही कि उनकी रचनाओं में समाज के समक्ष मानवीयता से ओत-प्रोत सामाजिक तथा पारिवारिक मूल्यों के आदर्श रूप को प्रस्तुत किया गया है। भक्ति के साथ-साथ सामाजिक सन्दर्भों से जुड़ी, लोक चिंता से युक्त जो क्षमता तुलसी के काव्य में दिखाई देती है वह सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है।

जीवन वृत्त- तुलसी के जन्म काल सम्बन्धी जानकारियाँ पूर्णतया प्रमाणित नही हो सकी है। कई विद्वानों ने अपने अनुसार प्राप्त प्रमाणों को साक्ष्य मानकर तुलसीदास का जीवन-वृत्त लिखने का कार्य किया है। तुलसीदास के बारे में अनेक जनश्रुतियाँ भी प्रचलित हैं। इनके आधार पर भी तुलसी के जीवन सम्बन्धी कई बातें मान्य हो गई हैं। सर्वाधिक प्रचलित मान्यता के अनुसार तुलसी का जन्म १५८९ ई० में पिता आत्माराम दुबे तथा माता हुलसी के घर उत्तर प्रदेश के बांदा जिला के राजापुर नामक स्थान में हुआ था। इसी सन्दर्भ में इनकी मृत्यु १६८० ई० में मानी जाती है तथा इससे सम्बंधित यह दोहा प्रसिद्द है- "संवत् सोलह सौ असी असी गंग के तीर श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी तज्यो शरीर।।"

गोस्वामी जी ने अपने बचपन के सम्बन्ध में अपने काव्य में लिखा है जिससे पता चलता है कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही अपने माता-पिता से बिछोह के उपरांत भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करते थे। परम्परा के अनुसार इनके गुरु का नाम नरहरिदास था। इनका विवाह रत्नावली के संग हुआ और माना जाता है की उसी के व्यंग्य वाणों से आहत होकर इन्होने वैराग्य ग्रहण कर लिया था।

कृतित्व- तुलसी के रचनाओं के सम्बन्ध में भी कई विद्वानों ने खोज कार्य किया है। उनके द्वारा रचित मान्य ग्रन्थ हैं-

रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न, रामचरितमानस, सतसई, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, गीतावली, कृष्ण गीतावली, बरवै रामायण, विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली ओर हनुमान बाहुक।

गोस्वामी जी ने अवधी तथा ब्रजभाषा दोनों में रचनाएँ की है। रामचरितमानस, रामलला नहछू, वैराग्य संदीपनी, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, बरवै रामायण की भाषा जहाँ अवधी है वहीँ गीतावली , कृष्ण गीतावली, विनय-पत्रिका, कवितावली, हनुमान बाहुक, दोहावली एवं सतसई की भाषा ब्रजभाषा है।

गोस्वामी जी के काव्य की विशिष्टता ही उन्हें हिन्दी साहित्य में उच्च स्थान पर प्रतिष्ठित करती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं- "एक ओर तो उनकी वाणी व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागयुक्त शुद्ध भगवदभक्ति का उपदेश करती हैदूसरी ओर लोकपक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौंदर्य दिखाकर मुग्ध करती हैव्यक्तिगत साधन के साथ-ही-साथ लोक धर्म की अत्यन्त उज्जवल छटा उसमें वर्तमान है।" यह एक ऐसी विशिष्टता है जो तुलसी को लोकहितवादी तुलसी बनती है। उन्होंने प्रत्येक स्टार पर मर्यादा के पालन पर बल दिया एवं प्रत्येक अवसर पर सदाचार को सर्वोपरि बताया।

एक और प्रवृति उन्हें भक्त कवियों में श्रेष्ठता प्रदान करती है , वह है समन्वय की भावना। उन्होंने ज्ञान और भक्ति, शिव और विष्णु, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत की एकता पर बल दिया तथा धर्म को लोकग्राह्य सामान्य रूप में प्रस्तुत किया।

इस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी साहित्य के भक्ति काल की अमूल्य निधि हैं। उन्होंने न सिर्फ़ राम भक्ति की परम्परा को आगे बढाया वरन उससे कहीं आगे बढ़कर लोकहित की भावना से काव्य की रचना की। मर्यादा और पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों के सागर रामचरितमानस के साथ वे लगभग प्रत्येक हिंदू घर में विराजमान हैं।