हिन्दी साहित्यिक विकास के एक लंबे दौर से गुजरी है और इस दौरान कई उतार-चढाओं, बदलावों तथा नई प्रवृतियों से इसका परिचय हुआ। इस विकास-पथ पर यात्रा के दौरान कई सृजनकारों ने अपनी सृजनात्मक क्षमता से हिन्दी को अनमोल रचना रूपी आभूषणों से विभूषित किया है। चाहे वह गद्य विधा हो या पद्य विधा, हिन्दी के कई साहित्यकारों ने अपनी अलग साहित्यिक पहचान बनाई है. इन्ही मनीषियों तथा इनकी रचनाओं से जुड़ने की मैं एक छोटी सी कोशिश कर रहा हूँ।

08 सितंबर 2008

उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद




हिन्दी साहित्य की दो प्रमुख विधाओं कहानी एवं उपन्यास को साहित्याकाश में स्थापित करने का श्रेय निश्चय ही मुंशी प्रेमचंद को जाता है। उपन्यास में यथार्थवाद की जिस प्रकार से उन्होंने प्रस्तुति की वह उपन्यास को सीधे सामाजिक सन्दर्भों से जोड़ने के लिए आवश्यक था। यहाँ मैं उनके जीवन एवं कृतित्व को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहा हूँ

३१ जुलाई १८८० को उ० प्र० के काशी के समीप लमही नामक गाँव में जन्मे धनपत राय बड़े होकर हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के रूप में प्रसिद्ध हुए इनके पिताश्री का नाम अजब राय एवं माताश्री का आनंदी देवी था लगभग वर्ष की उम्र में माता साथ छोड़ स्वर्गवासी हो गई

१८८५ से इन्होने विद्या अध्ययन प्रारम्भ किया प्रारम्भ में एक मौलवी साहब से उर्दू की शिक्षा प्राप्त की फ़िर १३ वर्ष की उम्र में मिडिल स्कूल में दाखिला लिया पुरे विद्यार्थी जीवन में संघर्ष करते हुए प्रेमचंद ने बि० ए० की परीक्षा भी उत्तीर्ण की

१५ वर्ष की अवस्था में इनका विवाह कर दिया गया। पत्नी कुरूप तथा स्वाभाव से अत्यन्त तीक्ष्ण थी दांपत्य जीवन में क्लेश गया। प्रेमचंद ने बाल विधवा शिवरानी देवी से दूसरा विवाह कर लिया तथा शिवरानी देवी के साथ सुखी दांपत्य जीवन जीने लगे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया तथा आगे चलकर शिक्षा विभाग के सब-इंसपेक्टर के छोड़में प्रोन्नति पाई

महात्मा गाँधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आन्दोलन (१९२०) से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी छोड़ संपादन का कार्य प्रारम्भ किया। इस क्षेत्र में इन्होने 'मर्यादा', 'हंस', जागरण' तथा 'माधुरी' जैसी प्रतिष्ठित पत्रिकाओं का संपादन किया। जीवन के अन्तिम दिनों में वे फ़िल्म क्षेत्र में कार्य करने के लिए बम्बई आ गए पर गिरते स्वास्थ्य के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। ८ अक्टूबर १९३६ ई० को इस महान लेखक ने अपना शरीर त्याग दिया।

प्रेमचंद ने एक साहित्यकार के रूप में भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में अपना पूर्ण योगदान दिया। अपनी पहली कहानी 'दुनिया के सबसे अनमोल रत्न' में उन्होंने मातृभूमि की सेवा में बहाए गए खून की प्रत्येक बूंद को संसार का सबसे अनमोल रत्न बताया। १९०८ ई० में उनका प्रथम कहानी संग्रह सोजे-वतन प्रकाशित हुआ जिसकी भूमिका में प्रेमचंद ने बंग-भंग आन्दोलन को लक्ष्य करके अपने विचार रखे थे। हम्मीरपुर के कलक्टर ने शोजे वतन की शेष प्रतियाँ लेकर जला दी थी तथा उन्हें आदेश दिया था की प्रकाशन से पूर्व उसे वे प्रत्येक पंक्तिया दिखा दिया करें।

प्रेमचंद का रचना संसार- प्रेमचंद ने यथार्थ को अपनी रचनाओं में स्थान दिया है। प्रारंभिक रचनाओं में यथार्थ आदर्शवाद के साथ जुड़कर आता है और प्रेमचंद गांधीवाद से रचनाकाल के मध्य की रचनाओं में प्रभावित दिखते है पर गोदान जैसी महान रचना तक आते-आते गांधीवाद से भी उनका मोहभंग होता है और वे विशुद्ध यथार्थ जिसे नग्न यथार्थ भी कहा जाता है ,को प्रस्तुत करते हैं। उनका कृतित्व संक्षेप में निम्नवत है-
उपन्यास- वरदान, प्रतिज्ञा, सेवा-सदन(१९१६), प्रेमाश्रम(१९२२), निर्मला(१९२३), रंगभूमि(१९२४), कायाकल्प(१९२६), गबन(१९३१), कर्मभूमि(१९३२), गोदान(१९३२), मंगल-सूत्र(१९३६-अपूर्ण)।
कहानी-संग्रह- प्रेमचंद ने कई कहानियाँ लिखी है। उनके २१ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे जिनमे ३०० के लगभग कहानियाँ है। ये शोजे वतन, सप्त सरोज, नमक का दारोगा, प्रेम पचीसी, प्रेम प्रसून, प्रेम द्वादशी, प्रेम प्रतिमा, प्रेम तिथि, पञ्च फूल, प्रेम चतुर्थी, प्रेम प्रतिज्ञा, सप्त सुमन, प्रेम पंचमी, प्रेरणा, समर यात्रा, पञ्च प्रसून, नवजीवन इत्यादि नामों से प्रकाशित हुई थी।
प्रेमचंद की लगभग सभी कहानियोन का संग्रह वर्तमान में 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित किया गया है।
नाटक- संग्राम(१९२३), कर्बला(१९२४) एवं प्रेम की वेदी(१९३३)
जीवनियाँ- महात्मा शेख सादी, दुर्गादास, कलम तलवार और त्याग, जीवन-सार(आत्म कहानी)
बाल रचनाएँ- मनमोदक, कुंते कहानी, जंगल की कहानियाँ, राम चर्चा।
इनके अलावे प्रेमचंद ने कुछ स्फुट रचनाएँ तथा अनेक विख्यात लेखकों यथा- जार्ज इलियट, टालस्टाय, गाल्सवर्दी आदि की कहानियो के अनुवाद भी किया।

इस प्रकार प्रेमचंद ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नई दिशा दी। यथार्थ को साहित्य में स्थान प्रदान कर समाज के यथार्थ को पाठको तक पहुचने का कार्य कर उन्होंने साहित्य को समाज का आईना निर्धारित किया। अपनी रचनाओं में समस्त समस्याओं के मध्य उन्होंने मानव की मानवता को तलाशा जो मानवीय मूल्यों से संपृक्त हो। उनके पत्र जन-सामान्य से ही निकलकर आते रहे, सबलताओं तथा दुर्बलताओं से ग्रस्त और फ़िर जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने के साथ-साथ उनसे संघर्ष करते रहे।

प्रेमचंद हिन्दी कथा साहित्य के एक युग प्रवर्तक हैं। हिन्दी साहित्य की उपन्यास विधा के उनके रचना युग को प्रेमचंद युग कहा गया। यहीं से कथा साहित्य में यथार्थ बोध के प्रस्तुति के साथ एक नई परम्परा की शुरुआत हुई.

3 टिप्‍पणियां:

Satyendra Prasad Srivastava ने कहा…

बहुत अच्छा काम कर रहे हैं आप

Unknown ने कहा…

प्रमोद जी आपके द्वारा हिन्दी साहित्यकारों के बारे में एक ही जगह पर जानकारी देने का जो प्रयास शुरू किया गया है वो हम जैसे जिज्ञासु लोगों के लिए एक अमूल्य उपहार है. प्रमोद जी मैंने आपके बारे में जानकारी देखने की कोशिश की परन्तु आपके बारे में ब्लॉग में कुछ भी नही जान पायी. आपसे प्रार्थना है कि अपने बारे में भी जानकारी दें.

Smart Indian ने कहा…

बहुत अच्छा प्रयास है!